ऐसे ही एक दिन, उन्हे इतनी व्याकुलता बढ गई, एक महिने बीत गए, अपने गुरुदेव के दर्शन नही किया, तभी उन्होने अपने एक साथी को बुलाया, बोले भाई आप एक सहायता करोगे, हां आप कहिए, आप आश्रम जाओ,
और मेरा नाम मत लेना, गुरुदेव से कहना की आपके जो वस्त्र है, उन्हे हमे दे दो, हम यमुना से धोकर ले आएंगे, एक सेवा तो मिले, मै यहा बैठे बैठे कुछ तो करूं, वो व्यक्ति फिर आश्रम गया, और नर हरदेव से प्रार्थना करने लगा, की आपके जो वस्त्र है,
उनको हमे धोने का सौभाग्य प्राप्त करें, बडी कृपा होगी आपकी, अरे इसमे क्या दिक्कत है, हम कल से दे दिया करेंगे,
अगले दिन वह गुरूदेव के आश्रम गया, और गुरूदेव के सभी कपडो को ले लेता, और जाकर रसिक देव को दे देता, रसिक जी गुरुदेव के कपडो को, प्रेम से निहारते, और उन्हे अपने हृदय से लगाते, उन्ही से कभी कभी लिपटकर रो भी लेते
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और थोडी देर बाद, उन्हे बढिया सुंदर जल से धोते, और उन्हे सुखाने के लिए डाल देते, और फिर वही बैठकर उन्हे निहारते, अपने बीते दिन को याद करते, की कैसे आश्रम मे, मै गुरूदेव के वस्त्रो को धुलता था, और फिर उन्हे सूखने के बाद, इत्र आदि लगाते थे।
और अच्छे से रख देता, यहा आज वह, इसी को अपनी सेवा मानते, अच्छे से हर रोज गुरुदेव के वस्त्रो को धोना, यही हमारी सेवा है, और सूखने के बाद उनमे इत्र लगाकर, और फिर उसी व्यक्ति के साथ भेजवा देते थे, लेकिन यहा कुछ अद्भुत चमत्कार होने लगा।
जब अगले दिन से गुरूदेव, उन वस्त्रो को धारण करते, तो एक अलग भाव प्रकट होता, और प्रिया प्रियतम के प्रति, एक अलग आकर्षक देखने को मिलता, गुरूदेव ने विचार किया, कि ऐसा क्या हो गया, की मेरा प्रेम इतना अटूट हो गया।
फिर अपने दिन चर्या को ध्यान दिया, तो याद आया, कि अभी तक मेरे वस्त्र, आश्रम के शिष्य धुला करते थे, लेकिन कुछ दिनो से, ये भक्त धुल रहा है, उसे अपने पास बुलाया, क्यो वस्त्र मेरे तू ही धोता है, झूट मत बोलना।
जब गुरुदेव ने क्रोध मे पूछा...
अगर तुमने झूट बोला, तो मै श्राप तो नही दूंगा, लेकिन तेरा भजन नष्ट हो जाएगा, ये सुन शिष्य धोडा घबडा गया, गुरुदेव मै छमा चाहता हूं, मुझसे गलती हो गई, आपके परम शिष्य रसिक देव जी, वह यमुना तट पर बैठे है, आपने उन्हे अपने से दूर कर दिया।
वह बहुत रोते है, आपकी व्याकुलता मे, वो आपके वस्त्र धुलते है, मै तो केवल आपके वस्त्र को लेकर उन्हे देता हूं, वह तो युगल मानकर आपके वस्त्रो को धुलते है, पूजा करते है, और बहुत प्रेम पूर्वक धुलते है, और फिर बैठकर सुखाते है, फिर इत्र आदि लगाकर।
मेरे हाथो आपके पास भेजते है, इतना सुन नर हरदेव ने, अपने नेत्र बंद कर लिए, और आंखो से आंसू निकलने लगे, इतना प्रेम ठाकुर जी के प्रति, कोई सामान्य व्यक्ति की सेवा से नही हो सकता, ये किसी परम भक्त, और शिष्य की वजह से हो रहा है।
लेकिन तत्काल नर हरदेव ने, अपने चेहरे का भाव बदला, सोचा अभी परिक्षा पूरी नही हुई, तुरंत उन वस्त्रो को उतारकर, उसके ऊपर फेंक दिया, और क्रोध के भाव मे बोले, की इन्हे लेकर जाओ, और उसके मुंह मे फेंको।
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और बोलो अभी आश्रम से निकाला है, मेरी आग्या है, की वृंदावन छोडकर चला जाए, वो घबडा गया, बोले गुरुदेव ऐसा मत करो, मेरी आग्या मान, नही तुझे भी निकाल दूंगा, तुरंत जाकर उससे कहदो, कि वृंदावन छोडकर चला जाए, जीवन मे परिक्षा बहुत जरुरी है,
अब जो रोज गुरुदेव के वस्त्र लाता था, आज रोता हुआ आ रहा है, इधर रसिक देव तो, रोज की तरह प्रतिक्षा करते है, की मेरे गुरुदेव के वस्त्र आ रहे है, जैसे उसकी नजर पडी, वह दौडकर गया, आज तुम वस्त्र नही लेकर आए,
वह तुरंत रसिक के चरणो मे गिर गया, बोला मुझे माफ करना, गुरुदेव ने एक आग्या दी है, और वो मै आपको सुनाना चाहता हूं, रसिक जी बोले मेरे लिए आग्या दिया है, हा भ्राता जी, जल्दी बताओ सखा जी, बोले है की आप वृंदावन छोडकर चले जाओ,
उन्हे पता चल गया है, की उनके वस्त्रो की सेवा आप कर रहे है, इसलिए बोले आप वृंदावन छोडकर चले जाओ, सुनते ही रसिक देव के नेत्र सजल हो गए, सोचने लगे, की ऐसा क्या अपराध मैने किया, आश्रम से निकाल दिया, अब वृंदावन से भी दूर कर रहे है।
अरे गुरूदेव के बाद, ये वृंदावन यमुना ही तो थी, जिससे मेरे प्राण बच रहे थे, अब क्या करूं, लेकिन गुरूदेव की आग्या है, उन्होने जो गुरूदेव के कुछ वस्त्र थे, उसे उठाया, और वृंदावन से दूर जाने लगे, ये देख उस शिष्य का ह्रदय कांप उठा।
की जो बचपन से वृंदावन की रज में, खेलने मे मस्त रहता था, आज उसी पावन भूमी से दूर जा रहा है, उस समय गुरुदेव आग्या सर्वो प्रथम थी, अब रसिक देव मथुरा मे रहने लगे, कम से कम वृज मे तो रहूं, अब वही हुआ, की एक महिने तक उनको लगा ठीक होने मे।
जब रसिक देव थोडे ठीक हुए, फिर उन्हे गुरुदेव की याद आने लगी, लेकिन रसिक के ग्यान से, मथुरा वृन्दावन मे सभी परिचित थे, जब लोगो को पता चला, की रसिक जी मथुरा मे है, लोग उनसे मिलने जाते, और कुछ दान दक्षिणा देते, धीरे धीरे रसिक जी ने।
धन इकट्ठा करना शुरू किया, अब लोग बहुत आते थे, धन खूब सारा हो गया, रसिक देव ने मथुरा के सेठ को बुलाया, कहा की वृंदावन मे गोरेलाल ठाकुर जी है, वहा आश्रम मे ये दक्षिणा दे आओ, मेरा नाम मत लेना, अपनी तरफ से निवेदन कर देना।
ठाकुर जी की सेवा हेतू कुछ दक्षिणा है, अब सेठ खूब सारा धन लेकर गया, और आश्रम मे नर हरदेव जी के पास गया, बोला महाराज ठाकुर जी की सेवा के लिए, ये कुछ राशि है, स्वीकार करो, गुरुदेव प्रसन्न हो गए, बोले वाह भईया, अब हम ठाकुर जी का उत्सव करेंगे।
अगले ही दिन वृंदावन मे उत्साह हुआ, अब यहा खुशी की झलक देखो, उत्सव हो रहा है वृंदावन मे, विश्राम घाट मथुरा मे नाच रहे है, रसिक देव जी, आज उत्सव हो रहा है, मेरी सेवा कैसे भी हो, स्वीकार तो कर रहे है, अब तो रसिक देव को मजा आने लगा।
वह खूब मेहनत, और ईमानदारी से धन को इकठ्ठा करते, और फिर उसी सेठ को बुलाते, बोले इसे वृंदावन दे आओ, फिर सेठ गया, और गुरूदेव को धन राशि दिया, प्रेम से फिर गुरुदेव ने स्वीकार किया, दो तीन बार सेवा आ चुकी।
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